चरण कमल बंदो हरी राइ ।
जाकी कृपा पंगु गिरी लांघें अँधे को सब कुछ दरसाई।।
बहिरो सुनै मूक पुनि बोले रंक चले सर छत्र धराई।
सूरदास स्वामी करुणामय बार- बार बंदौ तेहि पाई ।।
अर्थ : सूरदास जी के इस दोहे में, वे भगवान कृष्ण के चरण कमलों की वंदना करते हैं। वे कहते हैं कि जिनकी कृपा से पंगु भी पहाड़ को पार कर सकता है, अंधे को सब कुछ दिखाई दे सकता है, और बहरे को सुनाई दे सकता है। सूरदास कहते हैं कि ऐसे करुणामय भगवान के चरणों को बार-बार वंदना करनी चाहिए।
उधौ मन न भये दस बीस ।
एक हुतौ सौ गयो स्याम संग ,को अराधे ईस ।।
इन्द्री सिथिल भई केसव बिनु ,ज्यो देहि बिनु सीस ।
आसा लागि रहित तन स्वाहा ,जीवहि कोटि बरीस।।
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के ,सकल जोग के ईस ।
सूर हमारे नंद -नंदन बिनु और नही जगदीस ।।
अर्थ : सूरदास जी इस दोहे में कृष्ण की भक्ति के महत्व को बताते हैं। वे कहते हैं कि एक बार कृष्ण की भक्ति में मन लग गया, तो फिर किसी और ईश्वर की आवश्यकता नहीं रह जाती है। कृष्ण की भक्ति से इंद्रियां भी शक्तिशाली हो जाती हैं। आशा के बिना रहकर भी जीव को कोटि वर्षों तक जीवित रहना चाहिए।
हरष आनंद बढ़ावत हरि अपनैं आंगन कछु गावत।
तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत।
अर्थ: भगवान कृष्ण अपने आंगन में आनंदित होकर गा रहे हैं, और उनके चरणों की हल्की हल्की थाप से मन को प्रसन्नता मिलती है।
निरगुन कौन देस को वासी ।
मधुकर किह समुझाई सौह दै, बूझति सांची न हांसी।।
को है जनक ,कौन है जननि ,कौन नारि कौन दासी ।
कैसे बरन भेष है कैसो ,किहं रस में अभिलासी ।।
पावैगो पुनि कियौ आपनो, जा रे करेगी गांसी ।
सुनत मौन हवै रह्यौ बावरों, सुर सबै मति नासी ।।
अर्थ : सूरदास ने भ्रमरगीत सार में उद्वव को मथुरा से ब्रज संदेश लेकर भेजा है। उद्वव, योग और ब्रह्म का ज्ञान। उनका प्रेम कोई संबंध नहीं है।गोपियों को निराकारब्रह्म और योग की शिक्षा पसंद नहीं आती।गोपियाँ क्रोधित हो जाती हैं और उद्वव को काले भवँरे की तुलना करती हैं। भ्रमरगीत सार उनकी बातचीत का नाम था। सूरदास ने भ्रमरगीत सार में उद्वव को मथुरा से ब्रज संदेश लेकर भेजा है। उद्वव, योग और ब्रह्म का ज्ञान। उनका प्रेम कोई संबंध नहीं है।गोपियों को निराकारब्रह्म और योग की शिक्षा पसंद नहीं आती।गोपियाँ क्रोधित हो जाती हैं और उद्वव को काले भवँरे की तुलना करती हैं। भ्रमरगीत सार उनकी बातचीत का नाम था।
बुझत स्याम कौन तू गोरी। कहां रहति काकी है बेटी देखी नही कहूं ब्रज खोरी ।।
काहे को हम ब्रजतन आवति खेलति रहहि आपनी पौरी ।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी ।।
तुम्हरो कहा चोरी हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी ।
अर्थ : इस प्रकार, श्रीकृष्ण की बातों में राधा को बहलाकर वे उन्हें अपने साथ खेलने के लिए ले जाते हैं। यह श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम की शुरुआत का प्रतीक है।
मैं नहीं माखन खायो मैया। मैं नहीं माखन खायो।
ख्याल परै ये सखा सबै मिली मेरैं मुख लपटायो।
अर्थ: कृष्ण अपनी मां यशोदा से कहते हैं कि उन्होंने माखन नहीं खाया, बल्कि उनके दोस्तों ने मिलकर उन्हें ऐसा कहने के लिए मजबूर किया है।